मेरी ज़रूरत

ज़िन्दग़ी के इस तमाशे में 
जब तक ख़ुद भी कोई तमाशा बनकर 
चलती हूँ, तब तक दोस्त की कमी 
महसूस नहीं होती इस पथ पर।

लेकिन कभी जब बनकर मूकदर्शक 
नज़र फेरती हूँ इन तमाशों पर, 
मेरी अनुपस्थिति का कोई प्रभाव 
नज़र नहीं आता है लोगों पर।

टीस उठती है दिल में 
कि मेरी कोई नहीं पहचान। 
मैं किसी की ज़रूरत नहीं हूँ 
हर कोई मानो हो मुझसे अनजान।

इच्छा होती है उस वक़्त कि काश! 
मैं भी होती किसी की ज़िन्दग़ी का हिस्सा, 
किसी की ज़िन्दग़ी के हर पृष्ठ पर होता 
उसका मुझसे जुड़ा कोई किस्सा।

हाँ, एक दोस्त की कामना है मुझे 
जिसे भी हो मेरी ज़रूरत। 
मेरी अनुपस्थिति पर अभाव का अहसास 

हो उसकी ज़िन्दग़ी की एक हक़ीकत।

"आभार : जया झा"

चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ !


(रचनाकार - रामावतार त्यागी)

दुनिया को हमसे बेरुख़ी की शिक़ायत है

दुनिया को हमसे बेरुख़ी की शिक़ायत है ।

किस्से नहीं सुनाते हम,
हाल-ए-दिल नहीं बताते हम,
ज़ाहिर करते नहीं हम पर
तक़दीर की क्या इनायत है ।

दुनिया को हमसे बेरुख़ी की शिक़ायत है ।

डरते हैं हम अपने ही कल से,
जीते हैं एक पल से दूजे पल पे,
कैसे बताएँ इनायत करने वाली
तक़दीर की क्या हिदायत है ।

दुनिया को हमसे बेरुख़ी की शिक़ायत है ।

आज हम बाँटे ख़ुशियाँ अपनी,
रहमदिल हुई कब दुनिया इतनी,
कल छिन गईं तो सह न सकेंगे,
जो हँसी में उड़ाने की रवायत है ।

दुनिया को हमसे बेरुख़ी की शिक़ायत है ।

"जया झा"

नहीं, तुम दूर ही अच्छे

नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।

दूर जो हो तुम आँखों से
तो मन के एक निष्कलुष संसार में
तुम्हें बसा रखा है मैंने
हृदय के स्वच्छंद विहार में ।

पास आ गए तो रोज़ की हज़ारों
चिंताओं के बीच तुम्हें पाऊँगी कैसे ?

नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।

तुम नातों से अलग हो
रिश्तों से परे हो,
मेरे हृदय में एक प्रकाश-पुंज
या रत्न से जड़े हो ।

पास आ गए तो एक ओर तुम्हें रख
दूजी ओर कैसे निभाऊँगी रिश्ते?

नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।

जी मचल जाता है तुम्हें याद करते ही,
सिहर जाती हूँ ख्यालों में ही तुम्हें महसूस कर ।
स्वप्नों में भी तो सताते रहते हो,
बहरूपिये सा कोई रूप धर ।

पास आ गए तो इस हृदय की
धड़कन तेज होने से बचाऊँगी कैसे?

नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।

तुम स्वप्न-से सुंदर हो,
कल्पनाओं-से मोहक हो,
क्लेश भरे मेरे जग से दूर
धैर्य व शांति के द्योतक हो ।

पास आ गए तो विश्वास नहीं कर पाऊँगी
कि इस जग के हो, फिर भी हो इतने सच्चे ।

नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।

"जया झा "

मैं ही तो बेराह नहीं?

सब आ जाते रास्ते पर मैं ही तो बेराह नहीं?
सबके दिन फिरते रब तक जाती मेरी आह नहीं।

छिन जाता है ये भी, वो भी, हँस कर पर देखा करती मैं
बहाने की दो आँसू भी क्यों रह गई मुझको चाह नहीं।

गीत सुना जाते शायर सब, पंछी भी कुछ गा जाते हैं,
दर्द कौन सा है अंदर कि कहती मुँह से वाह नहीं।

इम्तिहान ये ज़िन्दग़ी के इतने लंबे क्यों होते हैं
कहना पड़ जाता है खुलकर – और अब अल्लाह नहीं।

"जया झा "

कौन सा है रास्ता जो यों मुझे बुला रहा?

कौन सा है रास्ता जो यों मुझे बुला रहा?
धुंधला ये स्वप्न मुझे कौन है दिखा रहा?

बदली कई बार मग़र राह अभी मिली नहीं
चलने को जिसपर मेरा मन कुलबुला रहा।

बैठी थी यों ही, पर वैसे ना रह सकी
सफ़र कोई और है जो मुझे बुला रहा।

यहाँ-वहाँ, कहीं-कोई, झकझोर सा मुझे गया
कोई है सवाल जो पल-पल मुझे सता रहा।

"जया झा "

कुछ पीछे छोड़ तो आई हूँ ।

कुछ पीछे छोड़ तो आई हूँ ।

कुछ पिछड़े हुए क़ायदे थे,
कुछ बेवकूफ़ी भरे वादे थे ।
उन्हें छोड़ा ठीक, पर एक सरलता भी थी
उससे भी नाता तोड़ तो आई हूँ ।

कुछ पीछे छोड़ तो आई हूँ ।

आँसू व्यर्थ में निकलते थे,
लोग बेकार ही चिन्ता करते थे,
पर उनके पीछे अपनापन भी था,
अब मैं नहीं जोड़ जो पाई हूँ ।

कुछ पीछे छोड़ तो आई हूँ ।

सर हमेशा झुकाना पड़ता था,
आवाज़ को क़ाबू मॆं लाना पड़ता था,
पर लड़खड़ाने पर किसी का हाथ तो बढ़ता था,
उससे भी मुँह मोड़ तो आई हूँ ।

कुछ पीछे छोड़ तो आई हूँ ।

"जया झा "

 

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