कितनी बार तुम्हें देखा

कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।

सीमित उर में चिर-असीम
सौंदर्य समा न सका
बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग
मन रोके नहीं रुका
यों तो कई बार पी-पीकर
जी भर गया छका

एक बूँद थी, किंतु,
कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी।

कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।

शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी
कण-कण में बिखरी
मिलन साँझ की लाज सुनहरी
ऊषा बन निखरी,
हाय, गूँथने के ही क्रम में
कलिका खिली, झरी

भर-भर हारी, किंतु रह गई
रीती ही गगरी।

कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।

--शिवमंगल सिंह सुमन

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