दूर जो हो तुम आँखों से
तो मन के एक निष्कलुष संसार में
तुम्हें बसा रखा है मैंने
हृदय के स्वच्छंद विहार में ।
पास आ गए तो रोज़ की हज़ारों
चिंताओं के बीच तुम्हें पाऊँगी कैसे ?
नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।
तुम नातों से अलग हो
रिश्तों से परे हो,
मेरे हृदय में एक प्रकाश-पुंज
या रत्न से जड़े हो ।
पास आ गए तो एक ओर तुम्हें रख
दूजी ओर कैसे निभाऊँगी रिश्ते?
नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।
जी मचल जाता है तुम्हें याद करते ही,
सिहर जाती हूँ ख्यालों में ही तुम्हें महसूस कर ।
स्वप्नों में भी तो सताते रहते हो,
बहरूपिये सा कोई रूप धर ।
पास आ गए तो इस हृदय की
धड़कन तेज होने से बचाऊँगी कैसे?
नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।
तुम स्वप्न-से सुंदर हो,
कल्पनाओं-से मोहक हो,
क्लेश भरे मेरे जग से दूर
धैर्य व शांति के द्योतक हो ।
पास आ गए तो विश्वास नहीं कर पाऊँगी
कि इस जग के हो, फिर भी हो इतने सच्चे ।
नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।
"जया झा "
0 comments:
Post a Comment